बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
उत्तर -
गीता में वर्णित गुण-प्रकार
गीता में प्रकृति के अन्तर्गत तीन गुणों (सत्व गुण, रजोगुण एवं तमोगुण ) को स्वीकार किया गया है। सत्व गुण अत्यन्त ही निर्मल, स्वच्छ, दोषरहित, ज्ञान देने वाला तथा सांसारिकता से विमुक्त करने वाला होता है। सत्व गुण से व्यक्ति को वास्तविक सुख एवं ज्ञान की प्राप्ति होती है। सभी गुणों में सत्व गुण सात्विकता के कारण सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह गुण मनुष्य को उच्च स्थिति प्रदान करता है। रजोगुण से प्रेरित होकर मनुष्य अनुरक्त होकर अपने कर्मों का सम्पादन . कर ता है। रजोगुण सत्व गुण की अपेक्षा निम्न है। रजोगुण के कारण मनुष्य भौतिक एवं सांसारिक सुखों की ओर आकृष्ट होता है, जिस कारण वह बंधनग्रस्त होता है। तमोगुण अज्ञान का कारण है। इसके कारण मनुष्य में भ्रम, आलस्य, प्रमाद, निद्रा, मोह इत्यादि की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार सत्व गुण सुख का, रजोगुण कर्म का तथा तमोगुण अज्ञान का प्रतीक है। इन्हीं गुणों के आधार पर वर्णों की संरचना की गई है। सत्व गुण की प्रधानता वाला ब्राह्मण, रजोगुण की प्रधानता वाला क्षत्रिय, तमो एवं रजोगुण की प्रधानता वाला वैश्य एवं तमोगुण की प्रधानता वाला शूद्र कहलाया।
गीता में यह कहा गया है कि सत्व गुण ज्ञान का, रजोगुण लोभ तथा तमोगुण मोह का एवं अज्ञान का प्रतीक है। मनुष्य अपनी प्रकृति एवं वृत्ति के अनुसार इन तीनों गुणों में से किसी न किसी एक गुण से अवश्य प्रभावित होता है। व्यक्ति का कर्म उसकी गुणात्मक प्रकृति के द्वारा ही संचालित होता है। श्रद्धा, यज्ञ, तप, दान इत्यादि कार्य भी सात्विक, राजसिक एवं तामसिक प्रवृत्तियों से संचालित एवं प्रभावित होते हैं।
सात्विक, राजसिक एवं तामसिक गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं तथा इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर से बांधते हैं। गीता के अनुसार सत्व गुण निर्मल होने के कारण प्रकाशक, शरीर के सुख तथा ज्ञान से समृद्ध करने वाला है। रजोगुण तृष्णा एवं आसक्ति का कारण है तथा यह मनुष्य को कर्म- बंधन में बांधता है। तमोगुण का स्वरूप अज्ञानमूलक है, जिस कारण यह मनुष्य में मोह, आलस्य एवं निद्रा उत्पन्न करता है। ये तीनों गुण एक साथ नहीं होते हैं। किसी न किसी एक गुण की प्रधानता होती है तथा अन्य दो गुण दबे हुये होते हैं।
सत्व गुण ज्ञान की प्राप्ति कराता है जिससे सत्य तक सुगमतापूर्वक पहुँचा जाता है। गुण के द्वारा कर्म एवं संसार का ज्ञान प्राप्त होता है। शरीर के संयोग से उत्पन्न होने वाले तीनों गुणों को पारकर जन्म, मृत्यु, जरा एवं दुःख से छुटकारा पाकर गुणातीत हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करने से व्यक्ति प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों से ही वह उदासीन हो जाता है। उसे यह ज्ञान होता है कि गुण ही कर्ता है जिस कारण वह कर्मफल के सम्बन्ध में स्थिर रहता है तथा प्रिय एवं अप्रिय दोनों ही उसे समान प्रतीत होते हैं।
व्यक्ति कभी भी पूर्णरूपेण कर्म का परित्याग नहीं कर पाता है। वास्तव में जो कर्मफल का त्याग करता है वही सच्चा त्यागी होता है। इस त्याग में भी सात्विक, तामसिक एवं राजसिक विशिष्टताएँ सन्निहित होती हैं। वर्ण-धर्म का मोह त्याग करना तामसिक त्याग कहलाता है। कर्म को दुःख एवं कलेश के रूप में समझकर शारीरिक कष्ट के भय से कर्म का त्याग करना राजसिक त्याग कहलाता है। नियत कर्म को वांछनीय मानकर उसके फल का त्याग करना सात्विक त्याग है। अकल्याणकारी कार्य से द्वेष न करने वाला तथा कल्याणकारी कर्म में आसक्त न होने वाला व्यक्ति विशुद्ध सत्व गुण सम्पन्न, ज्ञानी एवं त्यागी होता है। मनुष्य कभी भी इन तीन गुणों के प्रभावों से मुक्त नहीं हो सकता है।
गीता के अनुसार व्यक्ति गुण के फलस्वरूप ही ज्ञाता एवं कर्ता होता है। इन तीन गुणों के कारण ही क्रियायें संचालित होती हैं। सत्व, रज एवं तम गुणों के द्वारा ही ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति तथा सुख की उत्पत्ति होती है। विविधता में एकत्व का भाव सात्विक ज्ञान है। भिन्न-भिन्न भूतों में भिन्न-भिन्न भावों की उत्पत्ति राजसिक ज्ञान है। अस्थिर ज्ञान की उत्पत्ति तामसिक ज्ञान है। कर्मफल की आकांक्षारहित होकर किया हुआ कर्म सात्विक कर्म होता है; फल की आकांक्षा रखकर परिश्रम से किया हुआ कर्म राजसिक कर्म होता है तथा परिणाम पर विचार किए बिना आज्ञानपूर्वक किया हुआ कर्म तामसिक कर्म होता है। सात्विक कर्ता वह है जो आसक्तिरहित, धैर्यवान, हर्ष एवं शोक से उदासीन होता है। राजसिक कर्ता वह है जो आसक्तिपूर्वक फल की आकांक्षा रखकर हर्ष एवं शोक से प्रभावित होता है। तामसिक कर्ता वह है जो अज्ञानी, अशिक्षित, धूर्त, आलसी तथा दीर्घसूत्री होता है।
गीता में गुणों के आधार पर बुद्धि का भी वर्गीकरण किया गया है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति मार्ग, कर्तव्य एवं अकर्तव्य तथा बंधन एवं मोक्ष को सही एवं यथार्थ रूप से जानने वाली बुद्धि को सात्विक बुद्धि कहते हैं। राजसिक बुद्धि वह है जिसके द्वारा मनुष्य धर्म एवं अधर्म तथा कर्तव्य एवं अकर्तव्य की वास्तविकता को नहीं जान पाता है। यथार्थ को अयथार्थ तथा सत्य को असत्य अनुभूत करने वाली तामसिक बुद्धि कही गई है।
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